जब मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
हर लफ़्ज पे एक कलाम लिखूँ।
उनमे जज़्बात हो यूँ गहरे,
के खोल के दिलके जखम रखूँ |
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
आखों मैं पाऊँ ऐसा दर्पण,
दर्पण जिसमे तसबीर तेरी|
इस दर्पण को औऱ न भाये कुछ
मश्ग़ूल इबादत मे तेरी।
जब चाहूँ तेरा दीदार करूँ, एक उसका अलग आयाम रखूँ |
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
क्या मिले कोई कागज़ ऐसा?
कोई दाग न हो, कोई कलंक न हो,
बिलकुल पावन तेरे जैसा|
क्या है कुछ ऐसा इस दुनिया मैं, जिसपे मैं ये पैगाम लिखूँ |
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
वो कलम कहाँ से लाउँ मैं?
जिसमें बस प्यार की सिह्याई हो,
न कही कटे, न कही चुभे|
जो बिगड़े उसकी सुंदरता, ऐसा मैं कुछ ना काम करूँ|
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
मैं खुद को बनाऊ इस काबिल|
दिल के कण कण बस हो तुम,
और प्यार से भर दूँ मन मंदिर|
फिर शायद अपने मनसे दिल पर लिखने का प्रयास करूँ|
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
मिलेगी कहाँ उपाधि ऐसी,
जो तेरे नाम के साथ जचे?
क्या है कोई भी ऐसे शब्द ,
इतने प्यारे, इतने सच्चे?
जितना सोचूँ, उतना हारूँ, कुछ ना आगे, ना कुछ बाद लिखूँ |
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
इक है ख़्वाइश तेरे नाम से,
जुड़ जाए मेरा नाम भी |
जैसे खिली धुप से,
जुड़ जाए काली छाँव भी |
पर ग़ुस्ताख़ी ये हो, तो हो कैसे, मैं खुद को बस ग़ुमनाम लिखूँ |
जब भी मैं तुम्हारा नाम लिखूँ ।
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